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उत्तराखंड में शुरू हुआ हरियाली का प्रतीक ‘हरेला मेला’, क्या है इस पर्व का महत्व एवं मान्यताएं ?

देहरादून | उत्तराखंड के लोकपर्व हरेला को हरियाली का प्रतीक माना जाता है. राज्य में हरेला का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. इस साल यह 16 जुलाई को मनाया जाएगा. हरेला उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र का एक प्राचीन लोकपर्व है. सावन महीने के पहले दिन से ही यह त्योहार मनाया जाता है. यह पहाड़ में एक विशेष महत्व रखता है. इस प्रसिद्ध त्योहार के अवसर पर हल्द्वानी के हीरानगर स्थित पर्वतीय सांस्कृतिक उत्थान मंच में मेले का आयोजन भी किया गया है. मेले का शुभारंभ हल्द्वानी के विधायक सुमित हृदयेश और निवर्तमान मेयर जोगेंद्र पाल सिंह रौतेला ने किया. यह मेला 16 जुलाई तक चलेगा |

क्यों कहते हैं इस पर्व को ‘हरेला’ ?

उत्तराखंड में सावन मास की शुरुआत हरेला पर्व से होती है। यह तारीख 16 जुलाई के दिन आगे-पीछे रहती है। इस दिन सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करते हैं। हरेला पर्व से 9 दिन पहले हर घर में मिट्टी या बांस की बनी टोकरी में हरेला बोया जाता है। टोकरी में एक परत मिट्टी की, दूसरी परत कोई भी सात अनाज जैसे गेहूं, सरसों, जौं, मक्का, मसूर, गहत, मास की बिछाई जाती है। दोनों की तीन-चार परत तैयार कर टोकरी को छाया में रख दिया जाता है। चौथे-पांचवें दिन इसकी गुड़ाई भी की जाती है। 9 दिन में इस टोकरी में अनाज की बाली जाती हैं। इसी को हरेला कहते हैं। माना जाता है कि जितनी ज्यादा बालियां, उतनी अच्छी फसल।

कैसे मानते हैं यह पर्व ?

हरेला यानी हरियाली, पहाड़ कुदरत के कितना करीब है, इस पर्व में झलकता है। उत्तराखंड में सावन की पहली तिथि को यह पर्व मनाया जाता है। कुमाऊंनी संस्कृति विशेषज्ञ शिखर चंद्र पंत बताते हैं कि पर्व से 9 दिन पहले घरों में मिट्टी या बांस की बनी टोकरी में हरेला बोया जाता है। टोकरी में एक परत मिट्टी की, दूसरी परत में कोई भी सात अनाज जैसे गेहूं, सरसों, जौं, मक्का, मसूर, पहाड़ी दाल भट्ट बिछाई जाती है। इसी तरह दोनों की तीन-चार परत तैयार कर टोकरी को कहीं छाया में रख दिया जाता है। त्योहार तक टोकरी में अनाज की बाली आ जाती है। यही हरेला है। कई गांवों में देवता के मंदिर में पूरे गांव के लिए इसे एक साथ बोया जाता है। माना जाता रहा है कि जितनी ज्यादा बालियां, उतनी अच्छी फसल।

कई गांवों में हरेला मंदिर में पूरे गांव के लिए एकसाथ बोया जाता है। 10वीं दिन हरेले को काटकर सबसे पहले घर के मंदिर में चढ़ाया जाता है। फिर घर की सबसे बुजुर्ग टीका-अक्षत लगाकर सभी के सिर पर हरेले के तिनके को रखते हैं, एक आशीष के साथ – ‘जी रया जागि रया, दूब जस फैलि जया । आकाश जस उच्च, धरती जस चाकव है जया। स्यू जस तराण है जो, स्याव जस बुद्धि है जो। सिल पिसी भात खाया, जांठि टेकि भैर जया।’ यानी जीते रहो, जागृत रहो। आकाश जैसे उच्च, धरती जैसा विस्तार हो। सियार की तरह बुद्धि हो, सूरज की तरह चमकते रहो। इतनी उम्र हो कि चावल भी सिल पर पीसकर खाओ और लाठी टेक कर बाहर जाओ। दूब की तरह हर जगह फैल जाओ।

हरेला पर्व का क्या है महत्व ?

पर्वतीय संस्कृतिक उत्थान मंच के अध्यक्ष खड़क सिंह बगड़वाल ने लोकल 18 से कहा कि उत्थान मंच में हरेला पर्व 5 दिन तक मनाया जाएगा. मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ-साथ विभिन्न खेलों का आयोजन किया जाएगा. संध्या में पहाड़ी कलाकारों द्वारा प्रस्तुति दी जाएगी. इसके साथ ही मेले में हरेला पर्व की जानकारी दी जाएगी. हरेला पर्व क्यों मनाया जाता है, कैसे मनाया जाता है और नई पीढ़ी को इसके बारे में भी बताया जाएगा |

वही दूसरी ओर, राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल गुरमीत सिंह (सेनि) ने प्रदेशवासियों को लोकपर्व हरेला की शुभकामनाएं दी हैं। उन्होंने कहा कि पर्यावरण को समर्पित ‘हरेला’ पर्व उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपरा और प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्द्धन का पर्व है। हरेला पर्व हमारी लोक संस्कृति, प्रकृति और पर्यावरण के साथ जुड़ाव का भी प्रतीक है। हमारी प्रकृति को महत्व देने की हमारी परंपरा रही है और हम प्रकृति के विभिन्न रूपों की पूजा करते हैं। हमारी इन परंपराओं का वैज्ञानिक आधार भी है। हमें उत्तराखंड की पर्यावरण हितैषी परंपराओं को आगे बढ़ाना है।

हरेला पर्व के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण के संदेश के प्रति लोगों को जागरूक करना है। वर्तमान में ग्लोबल वार्मिंग एवं पर्यावरण असंतुलन जैसी समस्याओं के चलते पर्यावरण संरक्षण का महत्व बढ़ गया है। उन्होंने कहा, हमें प्रकृति संरक्षण और प्रेम की अपनी संस्कृति के साथ ही उत्सवों को मनाए जाने की परंपरा को बनाए रखना होगा। हम सभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘एक पौधा मां के नाम’ मुहिम का हिस्सा बनकर एक-एक पौधा अवश्य लगाएं।

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